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Tuesday, May 07, 2024
पं. किशोरी मोहन त्रिपाठी, रियासतों के विरोध से जन्मा क्रांतिकारी नेता
25 January, 2019
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अभिषेक उपाध्याय, रायगढ़

स्मृति शेष : देश को गणतंत्र बनाने वालों में से एक पंडित जी की कहानी
गर्ल्स कॉलेज, इसी नाम से सब पंडित किशोरी मोहन त्रिपाठी गर्ल्स कॉलेज को जानते हैं। इसी कॉलेज के प्रांगण में त्रिपाठी जी की मूर्ति स्थापित की गई है। क्या आप जानते हैं कि कौन हैं पंडित किशोरी मोहन त्रिपाठी और उनके नाम पर गर्ल्स कॉलेज क्यों बनाया गया है।
देश के लिए पंडित किशोरी मोहन त्रिपाठी का योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता। वो स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे साथ ही रायगढ़ जिले से एकमात्र व्यक्ति जो भारत के संविधान निर्मात्री सभा के सदस्य थे। 1946 के आखिरी में संविधान बनाने के लिए देश के दिग्गजों को बुलाया जा रहा था। ऐसे में एक निम्न मध्यम वर्गीय परिवार के पंडितजी का इस सभा में शामिल होना सेंट्रल प्रोविंस एंड बरार (तब के रायगढ़ का राज्य और जिला संबलपुर) के लिए गौरव की बात थी। पंडितजी पंचायती राज के हिमायती, महिला शिक्षा को बढ़ावा, बाल श्रम श्रमिकों पर अंकुश लगाने जैसे प्रस्ताव सदन में लेकर आए थे।
1950 में जब वे सांसद बने तब वे 37 साल के थे तब के हिसाब से सबसे युवा सांसदों में से एक थे। पंडित जी और करीब 10 युवा सांसदों का एक ग्रुप हुआ करता था जो संसद की बहसों में जबर्दस्त तरीके से भाग से लेता था। सदन के लोग उनके सवालों के जवाब देने में पस्त हो जाते थे। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने इस ग्रुप को ‘जिंजर’ ग्रुप का नाम दिया था। बैरिस्टर छेदी लाल के साथ दिल्ली जाने तक सफर सिर्फ विचार-विर्मश में ही बीत जाया करता था।
तो ऐसे ऐतिहासिक पुरूष थे पंडित किशोरी मोहन त्रिपाठी। 70वें गणतंत्र दिवस पर हमने उनसे जुड़े कुछ अनछुए पहलुओं को सामने लाने की कोशिश है।


संघर्षों में बीता बचपन
पंडित जी का बचपन बहुत कष्ट में बीता था। उनका जन्म 8 नवंबर 1912 में सारंगढ़ रिसायत के सरिया गांव में हुआ था। उनके पिता बलभद्र त्रिपाठी संबलपुर के केंवटेनपाली के विद्वान पंडित थे तो सारंगढ़ के राजा जवाहर सिंह ने उन्हें पूरे परिवार समेत सारंगढ़ बुला लिया। सरिया में घर दिया और खेती के लिए कुछ जमीन भी। वे सारंगढ़ के राजकुमारों, राजकुमारियों को महल में ही शिक्षा देते थे। लेकिन कुछ ही समय बाद पंडित बलभद्र का देहांत हो गया। उस समय किशोरी मोहन महज 7 साल के थे। किशोरी मोहन के बड़े भाई नीलमणी त्रिपाठी, और दो छोटे भाई शशिभूषण त्रिपाठी और सुरेंद्रनाथ त्रिपाठी थे। अल्पायु में ही पिता का साया सिर से चले जाने के बाद चारो भाईयों को उनके चाचा बंशीधर त्रिपाठी रायगढ़ ले आए। नटवर स्कूल में स्कूली शिक्षा लेने के बाद वो बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से साहित्य विशारद की डिग्री लेकर लौटे। तरुणावस्था से ही वे रियासत विरोधी रहे वो पंचायती राज के हिमायती थे।
साल 1933 का था। नटवर स्कूल में शिक्षक की नौकरी मिली। लेकिन उनका विरोध कम नहीं हुआ। सियासतमंदो को उनकी बेबाकी खटक रही थी। स्कूल से निकाले जाने की तैयारियां शुरू हो गई।


कांग्रेस को स्थापित करने वालों में से एक
लेकिन हालात को भांपकर उन्होंने स्वयं नटवर स्कूल से इस्तीफा दे दिया। फिर वे रिसायत के विरोध में खुलकर सामने आ गए, उन्होंने जबर्दस्त मुहिम शुरू की। देश की आजादी के लिए विरोध प्रदर्शनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। रियासत के कोप से बचने के लिए कई दफे उन्हें भूमिगत भी होना पड़ा। इसी बीच वो राजनीति से जुड़े। कांग्रेस को रायगढ़ समेत ओडिसा के कई जिलों में स्थापित करने का श्रेय पंडित किशोरी मोहन त्रिपाठी को ही जाता है। रियासतों के खिलाफ मोर्चा और अंग्रेजी, संस्कृत और हिंदी में पारंगत किशोरी मोहन से भीम राव अंबेडकर के पत्राचार होने लगे। उन्होंने 1947 में किशोरी मोहन को दिल्ली बुला लिया। जहां वे संविधान निर्मात्री सभा के सदस्य हुए। उस समय राजाओं की पार्टी कही जाने वाली कांग्रेस के हर बड़े नेता के कान खड़े हो गए थे इसे क्यों शामिल किया। लेकिन जब बैठकों का दौर चला और उन्होंने अपने ड्राफ्टिंग की प्रपोस्ड डायरी में पंचायती राज, बाल श्रमिक पर अंकुश, स्त्री शिक्षा को बढ़ावा देने पर अपनी बातें रखीं (बाद में उन्हें नीति निदेशक तत्वों में शामिल किया गया) तो सभी को पता चल गया कि बाबा अंबेडकर ने सही आदमी को चुना है।


शिक्षक बनने में ज्यादा सुकून था
पंडित किशोरी मोहन त्रिपाठी के पुत्र और बयार सांध्य दैनिक के संपादक सुभाष त्रिपाठी अपने पिता को याद करते हुए कहते हैं कि 1962 में वो धरमजयगढ़ विधानसभा चुनाव क्षेत्र से खड़े थे। तब खरसिया भी इसी सीट में शामिल था। पिता जी को हराने के लिए वहां के राजा ने अपने दीवान को खड़े किया था। पूरी राजशाही दीवान के साथ थी लेकिन पिता जी जीते। कहने का मतलब यह है कि निम्नवर्गीय परिवार के किशोरी मोहन त्रिपाठी को सुदूर जंगलों में लोग जानते थे। उनका आजादी के लिए संघर्ष, संविधान निर्माण में योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। पिता जी 1947-1950 तक संविधान निर्मात्री सभा के सदस्य थे, फिर 1950-1952 तक मनोनीत सांसद थे। इसके बाद 1962-1967 तक विधायक थे। इसके बावजूद उनके अंदर क्षण भर का कोई गुरूर नहीं था। वे सदैव डाउन-टू-द-अर्थ रहे। लोग पत्रकार से नेता बनते हैं लेकिन पिताजी ही एकमात्र हैं जो पहले बड़े नेता रूप में स्थापित हुए फिर पत्रकार बने। उन्होंने 1969 में साप्तहिक अखबार बयार की स्थापना की। उन्हें कविता लिखने का बहुत शौक था। मन बैरी मन मीत उनके कविताओं के संग्रह की किताब है।
नटवर हाई स्कूल के डायमंड जुबली के अवसर पर निकली पत्रिका ‘आलोक’ में उन्होंने लिखा था कि सांसद और विधायक बनने से ज्यादा सुकून मुझे एक शिक्षक बनने में मिला।
पिता को याद करते-करते 74 साल के सुभाष त्रिपाठी थोड़े भावुक हो जाते हैं। चश्मे के भीतर आए पानी को साफ करते हुए कहते हैं कि पिताजी से बड़ा सज्जन इंसान मैने आज तक नहीं देखा। उनकी साफगोई का हर कोई कायल था। अंग्रेजी और संस्कृत में उनकी जबर्दस्त पकड़ थी। पिता को यह सब दादी सावित्री त्रिपाठी से मिला था। उनकी तीसरी पीढ़ी में उनके आर्दश और सादगी देखने को मिल जाएगी। मेरे दोनों बेटे फौज में है। बड़ा बेटा कर्नल विप्लव त्रिपाठी और छोटा बेटा ले. कर्नल अनय त्रिपाठी दोनों ही अपने दादा की ही तरह जिंदादिल और शांत हैं। मेरी माता स्नेहलता त्रिपाठी ने पिताजी का हर कदम पर भरपूर साथ दिया। अंतत: 25 सितंबर 1994 को पिताजी हमें छोड़ के चले गए।
रायगढ़ के पहले कॉर्टूनिस्ट मुमताज भारती पंडित जी को याद करते हुए कहते हैं कि वो हमारे काफी सीनियर थे। शालीनता उनमें कूट-कूटकर भरी हुई थी। मैने उनके देहावसान के बाद उनका एक पोट्रेट बनाया था। उसको बनाना मेरे लिए काफी भावुक क्षण था।


हमारे हीरो हैं दिल्ली बा
पंडित जी की तीसरी पीढ़ी की तुलिका सचिन पटनायक अपने नाना को याद करते हुए कहतीं हैं “मुझे आज भी याद है जब वो खादी का कुर्ता और धोती पहने, लाठी लेकर घर में आते तो हमें अहसास हो जाता था कि वो दिल्ली बा ही हैं। दिल्ली में रहने के कारण उन्हें परिवार के बच्चे दिल्ली बा कहते। मुझे गर्व है कि मैं उनकी नातिन हूं। गर्मियों की छुट्टियों में नाना जी की कहानियां आज पर्यंत तक याद है। वो सादगी की मिसाल थे, पूर्व विधायक और सांसद होने के बाद भी उनमें जरा सा अहम नहीं था। आजादी से पहले के उनके संघर्ष और बाद की सारी कहानियां हमें मुंहजुबानी याद है। दिल्ली बा लाल रंग की “बही” लेकर बैठते थे जिसमें वो अपनी कविताओं के साथ सारा हिसाब किताब रखते थे। गरीबों की मदद के लिए वो सदैव तत्पर थे। उन्हें अहिंसा पर विश्वास था और भ्रष्टाचार से सदैव दूर रहे।
मेरे नाना मेरी मां और मेरे लिए हीरो हैं। विषम परिस्थितियों को कैसे पार करना है ये सब हमने उन्हीं से सीखा है। मां बताती है कि वो आठ भाई-बहन थे। नाना जी के पास आय का कोई मजबूत जरिया नहीं था इसके बावजूद उन्होंने पूरे परिवार की परवरिश बेहतर तरीके से किया। आज उनका पूरा खानदान सेटल है।“
पंडित किशोरी मोहन की बहू आशा त्रिपाठी बताती हैं कि दिल्ली बा परंपराओं को मानने वालों में थे लेकिन जितनी आजादी उन्होंने अपने परिवारों वालों को 50 के दशक से देना शुरू किया था उतना तो आज के जमाने में देखने को नहीं मिलता।

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